अलंकार प्रकरण
अलंकार का अर्थ एवं परिभाषा-
अलंकार शब्द दो शब्दों के योग से मिलकर बना है- 'अलम्' एवं 'कार' , जिसका अर्थ है- आभूषण या विभूषित करने वाला। काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्व को अलंकार कहते हैं। दूसरे शब्दों में जिन उपकरणों या शैलियों से काव्य की सुंदरता बढ़ती है, उसे अलंकार कहते हैं।
अलंकार के प्रकार-
1. शब्दालंकार-
जहाँ शब्दों के कारण काव्य की शोभा बढ़ती है, वहाँ शब्दालंकार होता है। इसके अंतर्गत अनुप्रास,यमक,श्लेष और पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार आते हैं।
2. अर्थालंकार-
जहाँ अर्थ के कारण काव्य की शोभा में वृध्दि होती है, वहाँ अर्थालंकार होता है। इसके अंतर्गत उपमा,उत्प्रेक्षा,रूपक,अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, अपन्हुति, विरोधाभास आदि अलंकार शामिल हैं।
3. उभयालंकार -
जहाँ अर्थ और शब्द दोनों के कारण काव्य की शोभा में वृध्दि हो, उभयालंकार होता है | इसके दो भेद हैं-
1. संकर 2. संसृष्टि
शब्दालंकार के प्रकार-
1.अनुप्रास अलंकार-
जहाँ काव्य में किसी वर्ण की आवृत्ति एक से अधिक बार होती है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण 1.
''तरनि-तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।''
यहाँ पर 'त' वर्ण की आवृत्ति एक से अधिक बार हुआ है। इसी प्रकार अन्य उदाहरण निम्नांकित हैं-
उदाहरण 2.
'चारु चंद्र की चंचल किरणें, खेल रही हैं जल-थल में।'
यहाँ पर 'च' वर्ण की आवृत्ति एक से अधिक बार हुआ है।
उदाहरण 3.
बंदउँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुवास सरस अनुरागा।।'
यहाँ पर 'स' वर्ण की आवृत्ति एक से अधिक बार हुआ है।
उदाहरण 4.
रघुपति राघव राजा राम।
पतित पावन सीताराम।।
यहाँ पर 'र ' वर्ण की आवृत्ति चार बार एवं 'प ' वर्ण की आवृत्ति एक से अधिक बार हुआ है।
अनुप्रास के प्रमुख दो भेद किए जा सकते हैं -
1. वर्णानुप्रास
2. शब्दानुप्रास
वर्णानुप्रास को चार भागों में बाँटा गया है -
1. छेकानुप्रास
काव्य में जहाँ किसी वर्ण की आवृत्ति मात्र दो बार होती है , वहाँ छेकानुप्रास होता है।
उदाहरण -
(क) अपलक अनंत, नीरव भूतल ( पंत , नौका विहार ) यहाँ पर अ वर्ण की आवृत्ति दो बार हुई है।
(ख) बरस सुधामय कनक दृष्टि बन ताप तप्त जन वक्षस्थल में।
(ग) प्रिया प्रान सुत सर्वस मोरे
(घ) बचन बिनीत मधुर रघुबर के।
(ङ) गा के लीला सव प्रियतम की वेणु, वीणा बजा के।
प्यारी बातें कथन करके वे उन्हें बोध देतीं। ( हरिऔध, राधा की समाज सेवा )
(च) बिबिध सरोज सरोवर फूले।
2. श्रुत्यानुप्रास
काव्य में जहाँ एक ही उच्चारण स्थान के बहुत से वर्णों के प्रयोग मिलते हैं वहाँ श्रुत्यानुप्रास होता है। वास्तव में यहाँ सुनने में वे वर्ण एक से लगते हैं।
उदाहरण-
(क) ता दिन दान दीन्ह धन धरनी
(ख) कंकन किंकिन नूपुर धुनि सुनि
3. वृत्यानुप्रास
काव्य में जहाँ किसी एक या अनेक वर्णों की आवृत्ति कई बार होती है , वहाँ वृत्यानुप्रास होता है।
उदाहरण
(क) पतन पाप पाखंड जले, जग में ऐसी ज्वाला सुलगा दे ( दिनकर, कविता का आह्वान )
(ख) ध्वनिमयी करके गिरि- कंदरा, कलित-कानन-केलि-निकुंज को।
(ग) तरनि तनुजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।
(घ) सत्य सनेह सील सुख सागर।
(ङ) चंदू की चाची चाँदी के चम्मच में चटनी चटाई
(4) अन्त्यानुप्रास
जहाँ काव्य में अंतिम वर्ण एक से हों या उनकी ध्वनि एक सी हो , वहाँ अन्त्यानुप्रास होता है।
उदाहऱण
(1) उठ भूषण की भाव रंगिणी ! रूसो के दिल की चिनगारी।
लेनिन के जीवन की ज्वाला जाग जागरी क्रान्तिकुमारी। इन पंक्तियों में वृत्यानुप्रास भी है।
टीप - प्रत्येक कविता जिसमें तुक होता है , उसमें अन्त्यानुप्रास अलंकार भी होता है।
चौपाई, दोहे, सवैया आदि छंद इसके उदाहरण हो सकते हैं।
शब्दानुप्रास का एक प्रकार है, जिसे लाटानुप्रास कहते हैं।
लाटानुप्रास
जहाँ एक शब्द अथवा वाक्यांश की उसी अर्थ में आवृत्ति होती है किन्तु उसके तात्पर्य या अन्वय में अंतर होता है , लाटानुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण
(क) पूत कपूत ता का धन संचय , पूत सपूत ता का धन संचय।
(ख) रोको,मत जाने दो। रोको मत, जाने दो।
(ग) माँगी नाव , न केवट आना। मांगी नाव न , केवट आना।
2. यमक अलंकार-
जिस काव्य में एक शब्द एक से अधिक बार आए किन्तु उनके अर्थ अलग-अलग हों, वहाँ यमक अलंकार होता है।
उदाहरण 1.
कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।
या खाए बौरात नर या पाए बौराय।।
इस पद में 'कनक' शब्द की आवृत्ति दो बार हुई है। पहले 'कनक' का अर्थ 'सोना' तथा दूसरे 'कनक' का अर्थ 'धतूरा' है।
अन्य उदाहरण-
उदाहरण 2.
माला फेरत जुग गया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डारि दे,मन का मनका फेर।।
इस पद में 'मनका ' शब्द की आवृत्ति दो बार हुई है। पहले 'मनका ' का अर्थ 'माला की गुरिया ' तथा दूसरे 'मनका ' का अर्थ 'मन' है।
उदाहरण 3.
ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहनवारी
ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहाती हैं।
इस पद में 'घोर मंदर ' शब्द की आवृत्ति दो बार हुई है। पहले 'घोर मंदर ' का अर्थ 'ऊँचे महल ' तथा दूसरे 'घोर मंदर ' का अर्थ 'कंदराओं से ' है।
उदाहरण 4 .
कंद मूल भोग करैं कंदमूल भोग करैं
तीन बेर खाती ते बे तीन बेर खाती हैं।
इस पद में 'कंदमूल ' और ' बेर' शब्द की आवृत्ति दो बार हुई है। पहले 'कंदमूल ' का अर्थ 'फलों से' है तथा दूसरे 'कंदमूल ' का अर्थ 'जंगलों में पाई जाने वाली जड़ियों से ' है। इसी प्रकार पहले ' तीन बेर' से आशय तीन बार से है तथा दूसरे 'तीन बेर' से आशय मात्र तीन बेर ( एक प्रकार का फल ) से है ।
उदाहरण 5 .
भूखन शिथिल अंग, भूखन शिथिल अंग
बिजन डोलाती ते बे बिजन डोलाती हैं।
उदाहरण 6 .
तो पर वारों उर बसी, सुन राधिके सुजान।
तू मोहन के उर बसी, ह्वै उरबसी समान।।
उदाहरण 7 .
देह धरे का गुन यही, देह देह कछु देह |
बहुरि न देही पाइए, अबकी देह सुदेह ||
उदाहरण 8 .
मूरति मधुर मनोहर देखी।
भयउ विदेह -विदेह विसेखी।।
उदाहरण -9
सूर -सूर तुलसी शशि।
उदाहरण -10
बरछी ने वे छीने हाँ खलन के
उदाहरण -11
चिरजीवी जोरी जुरै क्यों न सनेह गंभीर।
को घाटी ये वृषभानुजा वे हलधर के वीर।।
यहां पर वृषभानुजा के दो अर्थ - 1. वृषभानु की पुत्री - राधिका २. वृषभा की अनुजा - गाय
इसी प्रकार हलधर के भी दो अर्थ है - 1. हलधर अर्थात बलराम 2. हल को धारण करने वाला - बैल
3. श्लेष अलंकार-
श्लेष का अर्थ - चिपका हुआ। किसी काव्य में प्रयुक्त होनें वाले किसी एक शब्द के एक से अधिक अर्थ हों, उसे श्लेष अलंकार कहते हैं। इसके दो भेद हैं- शब्द श्लेष और अर्थ श्लेष।
शब्द श्लेष- जहाँ एक शब्द के अनेक अर्थ होता है , वहाँ शब्द श्लेष होता है। जैसे- .
उदाहरण 1.
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे, मोती, मानुस, चून।।
यहाँ दूसरी पंक्ति में 'पानी' शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है।
मोती के अर्थ में - चमक, मनुष्य के अर्थ में- सम्मान या प्रतिष्ठा तथा चून के अर्थ में- जल।
अर्थ श्लेष- जहाँ एकार्थक शब्द से प्रसंगानुसार एक से अधिक अर्थ होता है, वहाँ अर्थ श्लेष अलंकार होता है।
उदाहरण 2
नर की अरु नल-नीर की गति एकै कर जोय
जेतो नीचो ह्वै चले, तेतो ऊँची होय।।
इसमें दूसरी पंक्ति में ' नीचो ह्वै चले' और 'ऊँची होय' शब्द सामान्यतः एक अर्थ का बोध कराते है, किन्तु नर और नलनीर के प्रसंग में भिन्न अर्थ की प्रतीत कराते हैं।
उदाहरण 3
जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय |
बारे उजियारो करे, बढ़ै अंधेरो होय |
यहाँ बारे का अर्थ 'लड़कपन' और 'जलाने से है और' बढे' का अर्थ 'बड़ा होने' और 'बुझ जाने' से है
4. प्रश्न अलंकार-
जहाँ काव्य में प्रश्न किया जाता है, वहाँ प्रश्न अलंकार होता है। जैसे-
जीवन क्या है? निर्झर है।
मस्ती ही इसका पानी है।
5.वीप्साअलंकार या पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार-
घबराहट, आश्चर्य, घृणा या रोचकता किसी शब्द को काव्य में दोहराना ही वीप्सा या पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
उदाहरण 1.
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल।
उदाहरण 2.
विहग-विहग
फिर चहक उठे ये पुंज-पुंज
कल- कूजित कर उर का निकुंज
चिर सुभग-सुभग।
उदाहरण 3.
जुगन- जुगन समझावत हारा , कहा न मानत कोई रे ।
उदाहरण 4.
लहरों के घूँघट से झुक-झुक , दशमी शशि निज तिर्यक मुख ,
दिखलाता , मुग्धा- सा रुक-रुक ।
अर्थालंकार के प्रकार-
1. उपमा अलंकार-
काव्य में जब दो भिन्न वस्तुओं में समान गुण धर्म के कारण तुलना या समानता की जाती है, तब वहाँ उपमा अलंकार होता है।
उपमा के अंग-
उपमा के 4 अंग हैं।
i. उपमेय- जिसकी तुलना की जाय या उपमा दी जाय। जैसे- मुख चन्द्रमा के समान सुंदर है। इस उदाहरण में मुख उपमेय है।
ii. उपमान- जिससे तुलना की जाय या जिससे उपमा दी जाय। उपर्युक्त उदाहरण में चन्द्रमा उपमान है।
iii. साधारण धर्म- उपमेय और उपमान में विद्यमान समान गुण या प्रकृति को साधारण धर्म कहते है। ऊपर दिए गए उदाहरण में 'सुंदर ' साधारण धर्म है जो उपमेय और उपमान दोनों में मौजूद है।
iv. वाचक -समानता बताने वाले शब्द को वाचक शब्द कहते हैं। ऊपर दिए गए उदाहरण में वाचक शब्द 'समान' है। (सा , सरिस , सी , इव, समान, जैसे , जैसा, जैसी आदि वाचक शब्द हैं )
उल्लेखनीय- जहाँ उपमा के चारो अंग उपस्थित होते हैं, वहाँ पूर्णोपमा अलंकार होता है। जब उपमा के एक या एक से अधिक अंग लुप्त होते हैं, तब लुप्तोपमा अलंकार होता है।
उपमा के उदाहरण-
1. पीपर पात सरिस मन डोला।
2. राधा जैसी सदय-हृदया विश्व प्रेमानुरक्ता ।
3. माँ के उर पर शिशु -सा , समीप सोया धारा में एक द्वीप ।
4. सिन्धु सा विस्तृत है अथाह,
एक निर्वासित का उत्साह |
5. ''चरण कमल -सम कोमल ''उपमा अलंकार के प्रकार
उपमा अलंकार के दो प्रकार हैं -
1. पूर्णोपमा
2. लुप्तोपमा
1. पूर्णोपमा
उपमा के चारो अंग उपमेय, उपमान, वाचक शब्द और साधारण धर्म स्थित हो वह पूर्णोपमा अलंकार होता है।
जैसे - मुख चंद्रमा के समान सुंदर है ।
2. लुप्तोपमा
जब काव्य में उपमा के एक या एक से अधिक अंग का लोप हो , वह लुप्तोपमा अलंकार है ।
जैसे - मुख चंद्रमा के समान है । यहाँ गुण धर्म सुंदर लोप है ।
लुप्तोपमा के तीन होते हैं - एक लुप्तोपमा, दो लुप्तोपमा, तीनलुप्तोपमा
2. रूपक अलंकार-
जब उपमेय में उपमान का निषेध रहित आरोप करते हैं, तब रूपक अलंकार होता है। दूसरे शब्दों में जब उपमेय और उपमान में अभिन्नता या अभेद दिखाते हैं, तब रूपक अलंकार होता है।उदाहरण-
उदाहरण 1.
चरण-कमल बंदउँ हरिराई।
उदाहरण 2
राम कृपा भव-निशा सिरानी
उदाहरण 3
बंदउँ गुरुपद पदुम- परागा।
सुरुचि सुवास सरस अनुरागा।।
उदाहरण 4.
चरण सरोज पखारन लागा |
उदाहरण 5.
अम्बर पनघट में डुबो रही,
तारा - घट ऊषा नागरी |
रूपक अलंकार के भेद -
1. अभेद रूपक
2. तद्रूप रूपक
1. अभेद रूपक
इस अलंकार में उपमेय में उपमान को पूरी तरह आरोपित कर दिया जाता है अर्थात जहाँ उपमेय और उपमान को बिना किसी भेद के एक बना दिया जाता है , वह अभेद रूपक कहलाता है ।
जैसे - पद पंकज है ।
2. तद्रूप रूपक
इस अलंकार मे उपमेय और उपमान में भेद भासित होता है । जैसे - पद दूसरा पंकज है ।
3. उत्प्रेक्षा अलंकार-
जहाँ उपमेय में उपमान की संभावना की जाती है, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। उत्प्रेक्षा के लक्षण- मनहु, मानो, जनु, जानो, ज्यों,जान आदि। उदाहरण-
* लता भवन ते प्रकट भे,तेहि अवसर दोउ भाइ।
मनु निकसे जुग विमल विधु, जलद पटल बिलगाइ।।
* दादुर धुनि चहु दिशा सुहाई।
वेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई।।
* मेरे जान पौनों सीरी ठौर कौ पकरि कौनों ,
घरी एक बैठि कहूँ घामैं बितवत हैं ।
* मानो तरु भी झूम रहे हैं, मंद पवन के झोकों से |
4. अतिशयोक्ति अलंकार-
काव्य में जहाँ किसी बात को बढ़ा चढ़ा के कहा जाए, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है। उदाहरण-
1. हनुमान की पूँछ में, लगन न पायी आग।
लंका सगरी जल गई, गए निशाचर भाग।।
या
2. आगे नदिया पड़ी अपार, घोडा कैसे उतरे पार।
राणा ने सोचा इस पार, तब तक चेतक था उस पार।।
या
3. देखि सुदामा की दीन दसा,
करुना करिकै करणानिधि रोए।
पानी परात को हाथ छुयौ नहिं ,
नैनन के जल सों पग धोए।
या
4. जनु अशोक अंगार दीन्ह मुद्रिका डारि तब।
या
मनो झूम रहे हैं तरु भी मंद पवन के झोकों से।
5. अन्योक्ति अलंकार-
जहाँ उपमान के बहाने उपमेय का वर्णन किया जाय या कोई बात सीधे न कहकर किसी के सहारे की जाय, वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है। जैसे-
* नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहिकाल।
अली कली ही सौं बंध्यो, आगे कौन हवाल।।
* इहिं आस अटक्यो रहत, अली गुलाब के मूल।
अइहैं फेरि बसंत रितु, इन डारन के मूल।।
* माली आवत देखकर कलियन करी पुकार।
फूले-फूले चुन लिए , काल्हि हमारी बारि।।
* केला तबहिं न चेतिया, जब ढिग लागी बेर।
अब ते चेते का भया , जब कांटन्ह लीन्हा घेर।।
6. अपन्हुति अलंकार -
अपन्हुति का अर्थ है छिपाना या निषेध करना।काव्य में जहाँ उपमेय को निषेध कर उपमान का आरोप किया जाता है,वहाँ अपन्हुति अलंकार होता है। उदाहरण-
* यह चेहरा नहीं गुलाब का ताजा फूल है।
* नये सरोज, उरोजन थे, मंजुमीन, नहिं नैन।
कलित कलाधर, बदन नहिं मदनबान, नहिं सैन।।
* सत्य कहहूँ हौं दीन दयाला।
बंधु न होय मोर यह काला।।
7. व्यतिरेक अलंकार-
जब काव्य में उपमान की अपेक्षा उपमेय को बहुत बढ़ा चढ़ा कर वर्णन किया जाता है, वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है। जैसे-
* जिनके जस प्रताप के आगे ।
ससि मलिन रवि सीतल लागे।
8. संदेह अलंकार-
जब उपमेय में उपमान का संशय हो तब संदेह अलंकार होता है। या जहाँ रूप, रंग या गुण की समानता के कारण किसी वस्तु को देखकर यह निश्चित न हो कि वही वस्तु हैऔर यह संदेह अंत तक बना रहता है, वहाँ सन्देह अलंकार होता है। उदाहरण-
* कहूँ मानवी यदि मैं तुमको तो ऐसा संकोच कहाँ?
कहूँ दानवी तो उसमें है यह लावण्य की लोच कहाँ?
वन देवी समझूँ तो वह तो होती है भोली-भाली।।
* विरह है या वरदान है।
* सारी बिच नारी है कि नारी बिच सारी है।
कि सारी ही की नारी है कि नारी ही की सारी है।
* कहहिं सप्रेम एक-एक पाहीं।
राम-लखन सखि होहिं की नाहीं।।
9. विरोधाभास अलंकार-
जहाँ बाहर से विरोध दिखाई दे किन्तु वास्तव में विरोध न हो। जैसे-
* ना खुदा ही मिला ना बिसाले सनम।
ना इधर के रहे ना उधर के रहे।।
* जब से है आँख लगी तबसे न आँख लगी।
* या अनुरागी चित्त की , गति समझे नहिं कोय।
ज्यों- ज्यों बूड़े स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होय।।
* सरस्वती के भंडार की बड़ी अपूरब बात ।
ज्यों खरचै त्यों- त्यों बढे , बिन खरचे घट जात ॥
* शीतल ज्वाला जलती है, ईंधन होता दृग जल का। यह व्यर्थ साँस चल-चलकर,करती है काम अनिल का।.
10. वक्रोक्ति अलंकार-
जहाँ किसी उक्ति का अर्थ जान बूझकर वक्ता के अभिप्राय से अलग लिया जाता है, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है। उदाहरण-
* कौ तुम? हैं घनश्याम हम ।
तो बरसों कित जाई।
* मैं सुकमारि नाथ बन जोगू।
तुमहिं उचित तप मो कहँ भोगू।।
इसके दो भेद है- (i) श्लेष वक्रोक्ति (ii) काकु वक्रोक्ति
11. भ्रांतिमान अलंकार-
जहाँ प्रस्तुत को देखकर किसी विशेष साम्यता के कारण किसी दूसरी वस्तु का भ्रम हो जाता है, वहाँ भ्रांतिमान अलंकार होता है। उदाहरण-
* चंद के भरम होत मोड़ है कुमुदनी।
* नाक का मोती अधर की कान्ति से,
बीज दाड़िम का समझकर भ्रान्ति से,
देखकर सहसा हुआ शुक मौन है,
सोचता है, अन्य शुक कौन है।
* चाहत चकोर सूर ऒर , दृग छोर करि।
चकवा की छाती तजि धीर धसकति है।
* बादल काले- काले केशों को देखा निराले।
नाचा करते हैं हरदम पालतू मोर मतवाले।।
12. ब्याजस्तुति अलंकार
काव्य में जहाँ देखने, सुनने में निंदा प्रतीत हो किन्तु वह वास्तव में प्रशंसा हो,वहाँ ब्याजस्तुति अलंकार होता है।
दूसरे शब्दों में - काव्य में जब निंदा के बहाने प्रशंसा किया जाता है , तो वहाँ ब्याजस्तुति अलंकार होता है ।
उदाहरण 1 :-
गंगा क्यों टेढ़ी -मेढ़ी चलती हो?
दुष्टों को शिव कर देती हो ।
क्यों यह बुरा काम करती हो ?
नरक रिक्त कर दिवि भरती हो ।
स्पष्टीकरण - यहाँ देखने ,सुनने में गंगा की निंदा प्रतीत हो रहा है किन्तु वास्तव में यहाँ गंगा की प्रशंसा की जा रही है , अतः यहाँ ब्याजस्तुति अलंकार है ।
उदाहरण 2 :-
रसिक शिरोमणि, छलिया ग्वाला ,
माखनचोर, मुरारी ।
वस्त्र-चोर ,रणछोड़ , हठीला '
मोह रहा गिरधारी ।
स्पष्टीकरण - यहाँ देखने में कृष्ण की निंदा प्रतीत होता है , किन्तु वास्तव में प्रशंसा की जा रही है । अतः यहाँ व्याजस्तुति अलंकार है ।
उदाहरण 3 :-
जमुना तुम अविवेकनी, कौन लियो यह ढंग |
पापिन सो जिन बंधु को, मान करावति भंग ||
स्पष्टीकरण - यहाँ देखने में यमुना की निंदा प्रतीत होता है , किन्तु वास्तव में प्रशंसा की जा रही है । अतः यहाँ व्याजस्तुति अलंकार है ।
13. ब्याजनिंन्दा अलंकार
काव्य में जहाँ देखने, सुनने में प्रशंसा प्रतीत हो किन्तु वह वास्तव में निंदा हो,वहाँ ब्याजनिंदा अलंकार होता है।
दूसरे शब्दों में - काव्य में जब प्रशंसा के बहाने निंदा किया जाता है , तो वहाँ ब्याजनिंदा अलंकार होता है ।
उदाहरण 1 :-
तुम तो सखा श्यामसुंदर के ,
सकल जोग के ईश ।
स्पष्टीकरण - यहाँ देखने ,सुनने में श्रीकृष्ण के सखा उध्दव की प्रशंसा प्रतीत हो रहा है ,किन्तु वास्तव में उनकी निंदा की जा रही है । अतः यहाँ ब्याजनिंदा अलंकार हुआ ।
उदाहरण 2 :-
समर तेरो भाग्य यह कहा सराहयो जाय ।
पक्षी करि फल आस जो , तुहि सेवत नित आय ।
स्पष्टीकरण - यहाँ पर समर (सेमल ) की प्रशंसा करना प्रतीत हो रहा है किन्तु वास्तव में उसकी निंदा की जा रही है । क्योंकि पक्षियों को सेमल से निराशा ही हाथ लगती है ।
उदाहरण 3 :-
राम साधु तुम साधु सुजाना |
राम मातु भलि मैं पहिचाना ||
14. विशेषोक्ति अलंकार -
काव्य में जहाँ कारण होने पर भी कार्य नहीं होता, वहाँ विशेषोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण 1 :-
न्हाये धोए का भया, जो मन मैल न जाय।
मीन सदा जल में रहय , धोए बास न जाय।।
उदाहरण 2 :-
नेहु न नैननि कौ कछु, उपजी बड़ी बलाय।
नीर भरे नित प्रति रहै , तऊ न प्यास बुझाय।।
उदाहरण 3 :-
मूरख ह्रदय न चेत , जो गुरु मिलहिं बिरंचि सम |
फूलहि फलहि न बेत , जदपि सुधा बरसहिं जलद |
स्पष्टीकरण - उपर्युक्त उदाहरण में कारण होते हुए भी कार्य का न होना बताया जा रहा है ।
15. विभावना अलंकार :-
जहाँ कारण के न होते हुए भी कार्य का होना पाया जाय , वहां विभावना अलंकार होता है ।
जैसे-
उदाहरण 1 बिनु पग चलै सुनै बिनु काना।
कर बिनु करम करै विधि नाना।।
आनन रहित सकल रस भोगी ।
बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।
स्पष्टीकरण - उपर्युक्त उदाहरण में कारण न होते हुए भी कार्य का होना बताया जा रहा है । बिना पैर के चलना , बिनाकान के सुनना, बिना हाथ के नाना कर्म करना , बिना मुख के सभी रसों का भोग करना और बिना वाणी के वक्ता होना कहा गया है । अतः यहाँ विभावना अलंकार है ।
उदाहरण 2
निंदक नियरे राखिए , आँगन कुटी छबाय।
बिन पानी साबुन निरमल करे स्वभाव।।
16. मानवीकरण अलंकार -
जब काव्य में प्रकृति को मानव के समान चेतन समझकर उसका वर्णन किया जाता है , तब मानवीकरण अलंकार होता है |
जैसे -
1. है विखेर देती वसुंधरा मोती सबके सोने पर ,
रवि बटोर लेता उसे सदा सबेरा होने पर ।
2. उषा सुनहले तीर बरसाती
जय लक्ष्मी- सी उदित हुई ।
3. केशर -के केश - कली से छूटे ।
4. दिवस अवसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही
वह संध्या-सुन्दरी सी परी धीरे-धीरे।